गरुड़ पुराण के अनुसार मांस खाना पाप है या पुण्य, क्या कहता है हिन्दू धर्म?

क्या मांसाहार पाप है या पुण्य है?
जिस प्रकार अर्जुन ने इंसानों के रूप मे अपने प्रतिद्वंदी इत्यादि को तीर, तलवार इत्यादि से मारा, वो कर्म पाप नहीं था, क्योंकि उसने अपने क्षत्रिय स्वाभाव का परिचय देते हुए किसी इंसान की हत्या की थी.क्या आज कोई अर्जुन की तरह अपने भाई की तरह लड़े तो वो पाप होगा या पुण्य, ये कह कर कि मैं क्षत्रिय हूं, ये मेरा स्वाभाव हैँ ? वो भी आज के ज़माने मे कोई तलवार और चाकू से किसी की हत्या करें तो वो अत्यंत क्रूर अपराधों की श्रेणी मे भी आज के नियमो से आएगा.
जब प्राचीनकाल मे, क्षत्रिय का स्वाभाव इंसानों को मारना हो सकता हैँ और उससे वो पाप का भागी भी नहीं बनेगा, ये दर्शाता हैँ कि पाप और पुण्य की परिभाषा व्यक्ति के स्वाभाव पर निर्भर करती है. स्वाभाव बनाये और बिगाड़े भी जा सकते है, जैसे अर्जुन के मन मे, युद्ध से पूर्व, वैराग्य उत्पन्न हुआ तो अर्जुन हिंसा का मार्ग छोड़ कर, अपना स्वाभाव छोड़ कर, अपना क्षत्रियत्व छोड़कर, सन्यासी बनने की आकांशा रखता है, परन्तु श्री कृष्ण उसे सन्यासी बनने नहीं देते और उसे आत्मा की अमरता और निष्काम कर्म का ज्ञान देते हुए अपने स्वाभाव को रखते हुए, युद्ध करने को कहते है.
और श्री कृष्ण अर्जुन को कहते है कि निष्काम कर्म से ना तो पाप की उपलब्धि होती है और ना हीं पुण्य की, क्योंकि उसमे ” मैं ” का लोप हो जाता है. कर्म को सदैव उसके फल कीइच्छा के बिना करने से निष्काम कर्म होता है. तो जिस प्रकार, राज्य के लिए, धन दौलत के लिए, संसार के दिव्यतम वस्तु के उपभोग के लिए, न्याय के लिए, खुद के भाई को मारना, इंसानों को मारना पाप नहीं तो मात्र भोजन के लिए कुछ जानवरो का प्रयोग करना पाप कैसा?
क्योंकि, मांसाहार करना या ना करना भी तो मनुष्य के स्वभाव का हीं हिस्सा है.
जैसे, प्राचीनकाल मे, अधिकतर ब्राह्मण अहिंसक स्वाभाव के हुआ करते थे और दूसरे समुदाय के कर्म हिंसक स्वाभाव से प्रेरित होते थे तो मांसाहार करना या ना करना भी एक स्वाभाव हीं है.और स्वाभाव मनुष्य जन्म के बाद अपने नित्य के कर्मो का चुनाव करते हुए बनाता भी है और बदलता भी है. तो स्वाभाव के पुराने हिंदू नियम से तो मांस खाओ या ना खाओ, ये कोई पाप नहीं है.
मांसाहार पाप ही नहीं, महापाप है।
किसी भी प्राणी के शरीर, मन और आत्मा को किसी भी रूप में आघात पहुँचाना, उसे पीड़ित करना पाप की श्रेणी में आता है। मांसाहार का परिणाम किसी मूक प्राणी को पीड़ित करना ही नहीं, अपितु उसके प्राणों का ही हरण करना है।कल्पना कीजिए, पैर में चुभे एक काँटे का दर्द भी कितना अधिक होता है, तो किसी निरपराध प्राणी की गर्दन पर छुरी चलाने से उसे कितना भयंकर दर्द होता होगा। अपने क्षणिक जिह्वा के स्वाद के लिए मूक जीवों को मौत के घाट उतार देना कितना जघन्य आचरण है। ऐसा आचरण पुण्य की श्रेणी में कैसे आ सकता है?
नोट – प्रत्येक फोटो प्रतीकात्मक है (फोटो स्रोत: गूगल)
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