मनुष्य की उत्पत्ति : कहाँ, कब और कैसे?

मानव की उत्पत्ति अभी भी अनबूझा सवाल है। मनुष्य की उत्पत्ति कहाँ शरू हुई थी, कैसे हुई थी, और कैसे विश्व में फैली? इसके आदिपूर्वज कौन थे? क्या मनुष्य ऐसा ही आदि में था जैसा आज है? ये सवाल अमानव प्राणियों के लिए भी मनुष्य की उत्पत्ति के बराबर महत्व रखते हैं। गाय, घोड़ा, हाथी, कबूतर, चमगादड़, सर्प, मछली कैसे, कब और कहाँ उत्पन्न हुए? हम मनुष्य हैं इसलिए मनुष्य से संबंधित हर जानकारी के लिए जिज्ञासु, व्याकुल व उत्सुक ज्यादा होते हैं। मेरी उत्पत्ति तो मेरे माता-पिता से हुई, माता-पिता की उत्पत्ति उनके माता-पिता से हुई। उनके माता-पिता की उत्पत्ति…..? यह कथन (उत्तर) अनंत है, कभी न समाप्त होने वाला। फिर भी वैज्ञानिक विमर्श करके ठोस समाधान खोजा जा सकता है।
अब तक जीवविज्ञान में यही पढ़ाया गया कि हजारों वर्ष पूर्व आधुनिक मनुष्य आज जैसा नहीं था। लाखों वर्ष में म्यूटेसन द्वारा शारीरिक परिवर्तन के साथ दो या चार पैर पर चलने वाले अन्य स्तनधारी प्राणियों से उसका धीरे-धीरे विकास हुआ। अब सवाल यह है, कि मनुष्य का कोई तो एक माता-पिता होना चाहिए। नहीं होने चाहिए, क्योंकि कोई भी जीव अपने माता-पिता से ही पैदा होते हैं और शारीरिक व मानसिक गुणरूप से एक समान होते हैं। इसका अर्थ है कि लाखों वर्ष में गुण परिवर्तन होने से हमारे आदिपूर्वज अवश्य ही हमारे जैसे नहीं हो सकते हैं।
ब्रह्मा ने सृष्टि के समय स्त्री-परुष (नारी-नर) अपने जंघों को रगड़ कर योगमाया से पैदा किया, जिससे मनुष्य की सन्तति बढ़ी और भारत में विस्तार किया। ब्रह्मा, वैदिक और पौराणिक मनुष्य पूरी दुनिया के बारे में नहीं जानता था, इसलिए भारत की अनुमानित विचारधारा ठप्प हो गई। जबकि यूरोप के वैज्ञानिक मानते हैं कि पहला मनुष्य मात्र 9000 वर्ष पहले था। वहीं ब्रह्मा ने पुत्री सावित्री व सरस्वती को उत्पन्न करके उन्हें जबरन पत्नी बना कर मनुष्य की सन्तति बढ़ाई और हिदुओं ने उन्हें आदिपुरुष मान लिया। अँधेरे में तीर चलाना नहीं तो और क्या है?
हिन्दू पौराणिकों का मत है कि हर 71वें सतयुग में पृथ्वी जलमग्न होती है जिसमें कुछ मनुष्य हिमालय पर बच जाते हैं जिनसे मनुष्य की जनन होने से जनसंख्या बढ़ती है। दूसरे, हजारों लोग घाटियों में दब जाते हैं जो हजारों वर्ष बाद उसी स्थिति में जिन्दा हो जाते हैं। आर्यसमाजी यह भी दावा करते हैं कि मनुष्य जैसा आज है, आदि से ऐसा ही है और अंत तक ऐसा ही रहेगा। तात्पर्य कि मनुष्य का शारीरिक व मानसिक विकास नहीं होता है जो विज्ञान के सिद्धांतों पर गलत है। वैदिक, हिंदूधर्म तथा आर्यसमाज अँधेरे में तीर चलाते हैं। परन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि दुनिया में बिखरे हुए मनुष्य का आदिमाता-आदिपिता (प्रथम मनुष्य) यही थे, जबकि डीएनए परीक्षण से स्पष्ट हो गया है कि आर्य (ब्राह्मण) यूरेशिया से भारत आये थे, तब 71वें युग या हिमालय में दबने-बचने का सिद्धांत अमान्य हो जाता है।
स्पेनार्ड मॉसेस डि लियोन 13वीं शताब्दी में अपनी पुस्तक “The Book of Splendour” में लिखता है कि जेहोवा ने एक ही वक्त में एक पुरुष “एडम” व एक स्त्री “लिलिथ” को उत्पन्न किया जो पति-पत्नी बनाये। निर्दयी व शैतानी स्वभाव के कारण वह एडम को छोड़ कर चली गई। एडम विक्षुप्त हो ईश्वर से प्रार्थना करता है तो वह ईव को पैदा करके पत्नी के रूप में प्रदान करता है और आदेश देता है कि तुम लोग पृथ्वी पर मनुष्य की सन्तति बढ़ाओ।
बाईबिल के अनुसार 2 लाख 9 हजार वर्ष पहले ईसू ने एडम-ईव को सजा-बतौर पृथ्वी पर भेजा था जिनसे मनुष्य की उत्पत्ति होकर वह हर भूभाग में फैलता गया। जीसस येरूशलम में थे, इसलिए वहीं मनुष्य के आदिमाता-पिता आदम-ईव थे। इसे सच मानें तो पूरी दुनिया में येरुशलम की संस्कृति और भाषा होनी चाहिए थी, जो नहीं है। दूसरे, इटली का ईसाई क्रिस्टोफर कोलंबस 14वीं शताब्दी के अंत में भारत आया था, तत्पश्चात् ईसाई भारत आने लगे, परंतु उनके आदिपूर्वज नहीं। आज करीब 1 करोड़ से ज्यादा ईसाई भारत में हैं, न उन्होंने अपनी संस्कृति त्यागी, न ही भारतीय संस्कृति अपनाई, न ही अपनी संस्कृति भारतीयों लादी, तमाम हिन्दुओं ने धर्मपरिवर्तन करके ईसाई हुए जिनका आदिपूर्वजों से कोई संबंध नहीं है। इसी प्रकार मुसलमान अपनी संस्कृति लेकर आये, जिसे न तो त्यागी और न ही भारतीय संस्कृति अपनाई। इससे स्पष्ट है कि विश्व की हर सभ्यता के लोग अपने-आप में स्वतंत्र रही तथा अपनी पहचान कायम रखने में भी सफल रही। अत: विश्व के सभी मनुष्यों के आदिपूर्वज एक नहीं हैं और एक ही स्थान पर आधुनिक मनुष्य की उत्पत्ति नहीं हुई। अँधेरे में तीर चलाने से वैज्ञानिक सत्य नहीं बदलते हैं। ईसाई/इस्लाम धर्म की उत्पत्ति या विकास 1400 वर्ष पूर्व होने से 2 लाख 9 हजार वर्ष पूर्व एडम+ईव की कथा का चश्मदीद गवाह कौन है–यहून्ना, जेहोवा, ईसू या कोई पैगम्बर? कोई नहीं। हिन्दुओं में भी कौन है जो ब्रह्मा-सरस्वती/सावित्री या शिव के काल का ब्यौरा प्रमाणित करे। सब अँधेरे में तीर चलाते हैं।
बात उस मनुष्य की है जो पृथ्वी पर सबसे पहले जन्मा और जिससे पूरी पृथ्वी पर विस्तृत हुआ। प्राणी अपने जैसा ही प्राणी (सन्तान) पैदा करता है, कबूतर से शेर की बात क्या करें पक्षियों में कौआ तक पैदा नहीं हो सकता है, चीता से बिल्ली, खरगोश से चूहा पैदा नहीं हो सकता। फिर अवश्य ही मनुष्य सिर्फ मनुष्य से ही पैदा होता आया। लेकिन पहला मनुष्य भी तो मनुष्य से पैदा हुआ होगा! यही सत्य नहीं है, क्योंकि आज का प्रत्येक प्राणी अपने-अपने पूर्वजों से पैदा होता आया और कई लाखों वर्ष में म्यूटेसन से प्रभावित होकर अलग-अलग प्राणियों में रूपांतरित हुआ। इससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य एक स्थान पर एक माता-पिता से पैदा नहीं हुए होंगे, क्योंकि नीग्रो, द्रविण, भील, एंग्लोइंडियन, रेडइंडियन, जापानी, चीनी, अफ्रीकन, आदिवासी एवं वनमानुष जैसी मनुष्य की विभिन्न प्रजातियाँ अपने-अपने स्थान पर अपने-अपने आदिपूर्वजों से रूपांतरित होते आये।
विश्व में जितनी भी सभ्यताएं हैं, 9-10 हजार वर्ष ही पुरानी हैं जिनमें मनुष्य द्वारा निर्मित मकान, वस्त्र, बर्तन, हथियार, सामाजिक संरचना आदि की पहचान से समय व सभ्यता का अनुमान लगाया गया है। हम मान लेते हैं कि हम स्थानीय सभ्यताओं में मिले फॉसिल मनुष्यों की संतानें हैं, इससे यह प्रमाणित नहीं हो जाता है कि वही पहले मनुष्य थे, क्योंकि तब फिर एक स्थान पर नहीं, हर देश या हर महाद्वीप या भूखंड पर खोजी गई सभ्यताओं के लोग पहले मनुष्य थे। प्रश्न है कि पहला मनुष्य विश्व में कहाँ जन्मा? सभ्यताओं से भी तो इस नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता, क्योंकि यूरोप की सभ्यता का मानव हड़प्पा की सभ्यता में 10-15 लाख वर्ष पूर्व नहीं आ सकता था, तब असभ्य होने, वैज्ञानिक सोच व साधन-संसाधन के बिना वह हजारों मील दूर नहीं जा सकता था। इसके लिए हमें जीव विज्ञान की शोध पर आधारित होना पड़ेगा।
जीवाश्म (फॉसिल) :
आदिमानव के जीवाश्म विश्व में सबसे अधिक पूर्व अफ्रीका की रिफ्ट घाटी में सुरक्षित अवस्था में प्राप्त हुए हैं। यह घाटी इथियोपिया, केन्या व तंजानिया की सीमाओं को लांघती है। प्राप्त जीवाश्मों के अध्ययन से पता चला कि मानववंश का उद्भव कम से कम 25 लाख वर्ष पूर्व हुआ था। मानववंश के जनकों या कपिमानवों (ape) का उद्भव उनसे भी 25-30 लाख वर्ष (वर्तमान से 50-60 लाख वर्ष) पूर्व हो चुका था जबकि आधुनिक मानव की उत्पत्ति केवल 2-3 लाख वर्ष पूर्व ही हुई है। आस्ट्रैलोपिथैकस वंश को होमो वंश के जनक की मान्यता दी गई है। उपलब्ध प्रमाणों से पता चला है कि आस्ट्रैलोपिथैकस की एफोरेंसिस प्रजाति 40 लाख वर्ष पूर्व पूर्वी अफ्रीका की रिफ्ट घाटी में विद्यमान थी। दोनों में 3 अंतर हैं-मस्तिष्क कपिमानव की अपेक्षा आस्ट्रैलोपिथैकस का छोटा व होमो का अधिक चौड़ा था। दांत बड़े (चबाने वाले) व होमो के दांत छोटे (संशोधित खाद्य पदार्थ लेते थे), प्रथम चलते थे व पेड़ों पर भी चढ़ते थे, होमो सिर्फ दो पैरों पर ही चलते थे। लगभग 15-20 लाख वर्ष पूर्व के होमो हैनिलस, होमो रूडोल्फेंसिस तथा होमो एरगास्टर की जानकारी हो चुकी है।
आधुनिक मानव (होमो सेपियेंस) 2 लाख वर्ष पूर्व संभवत: अफ्रीका में विकसित हुआ और संसार में फैलता गया। मानव कोशिका का माइटोकांड्रिया (सूत्र कणिका) के डीएनए के अध्ययन से पता चला कि 2 लाख वर्ष पूर्व अफ्रीकी जमीन पर एक किसी महिला में आधुनिक डीएनए की माइटोकांड्रिया विकसित हुई जो उससे पूर्व मानव के माइटोकांड्रिया से ज्यादा सक्षम थी एवं उसकी संतानों से वंशज पर वंशजों में पहुंचते रहे और अनुकूलन क्षमता अधिक थी। फिर भी अभी मतभेद है कि होमो सेपियेंस अफ्रीका से फैला था या विश्व में कई जगह विकसित हुआ था।
प्राय: 25 हजार वर्ष पूर्व मनुष्य की एक प्रजाति होमो नियण्डरथेंटेसिस लुप्त हो गई। मध्य पाषाण युग के औजार इसी मानव की कृति हैं, और नियण्डरथल व आधुनिक प्रजाति का विकास एक ही प्रजाति पिथैकेन्थोपाइन मानव (होमो एरेक्टस) से होना समझा जाता है। मानव कुल का प्रारंभिक सदस्य आस्ट्रैलोपिथैसाइन मानव माना जाता है जिससे पिथैकेन्थोपाइन मानव विकसित हुआ। मानव वैज्ञानिक डार्ट की राय में यह आदिम मानव अन्य प्राणियों की हड्डियों, दांतों व सींगों का उपयोग बिना रूपान्तरण के ही औजारों के रूप में प्रयोग करता था। एक गुफा में आस्ट्रैलोपिथैकस मानव के जीवाश्म के साथ बबून बन्दर व एन्टीलोप हिरन के कई जीवाश्म उपलब्ध हुए। दोनों पशुओं के सिर आदि पर चोटों के निशान थे जो जिन्दा पर ही बनाये गये थे, ऐसे निशान जीवाश्म में नहीं बनते।
यद्यपि लेवेंटाइन में रह रहे मानव 12 हजार वर्ष पूर्व गेहूं तथा जौ का खाद्यानों के रूप में प्रयोग कर चुके थे, परन्तु अफ्रीका में रह रहे मानव को इन खाद्यानों का ज्ञान नहीं था। मानव के कुछ समुदाय लगभग 10,000 से 12,000 वर्ष पूर्व गेहूं, जौ, मटर व मसूर का भोजन में प्रयोग करने लगे थे।
पूना से 100 किमी दूर कुकड़ी नदी के किनारे “बोरी” गाँव के पास ज्वालामुखी से निकली सफेद मिट्टी “ट्रेफा” प्राप्त हुई थी, जिस पर पुरातन पाषाण हथियार मिले। राख के नीचे 6-8 मीटर तक लाल मिट्टी है जिसके नीचे मानवी हथियार मिले थे। ज्वालामुखी राख में पोटेशियम होता है। कुछ पोटेशियम किरणोत्सारी होता है जिसका रूपांतरित निर्धारित समय के बाद आरगॉन गैस में हो जाता है। विस्फोट के समय यह हल्की गैस वायुमंडल में चली जाती है। अत: इस समय राख में आरगॉन होती है। इसीलिए राख की आयु के लिए पोटेशियम व आरगॉन की मात्रा में तुलना की जाती है। बोरी गाँव की वह राख 14 लाख वर्ष की आंकी गई थी। तुलनात्मक अध्ययन से ज्ञात हुआ कि सुमात्रा स्थित “टोबा” ज्वालामुखी की राख का गुणधर्म इस राख के गुणधर्म के समान है, जबकि दोनों के बीच 2000 किमी की दूरी है। बोरी की काली व लाल मिट्टियों के चुम्बकीय अध्ययन से उनकी आयु 7 लाख वर्ष है। बोरी में राख की बौछार का समय ‘अश्युलीयन’ कहा जाता है। अफ्रीका में इसी काल के मानवीय अवशेष मिले हैं। हड्डियों के आधार पर उन्हें होमो एरेक्टस कहा गया।
चार्ल्स राबर्ट का निष्कर्ष था कि प्रकृति में जीवों की एक जाति एक ही बार किसी क्षेत्र विशेष में उत्पन्न होती है। जैसे-जैसे उनकी आबादी बढ़ती है, उनका क्षेत्रीय विस्तार होता जाता है। विभिन्न भूभागों में पहुंच कर नई भौगोलिक परिस्थितियों में उनके लक्षणों में परिवर्तन आने लगते हैं जिनसे नई प्रजातियाँ बनती हैं। थामस माल्थस के आबादी के सिद्धांत के प्रभाव में डार्विन (1842) ने प्राकृतिक वरण (Natural Selection) का सिद्धांत निश्चय किया–अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जीव आपस में संघर्ष करते हैं जो भ्रूण से लेकर जीवनपर्यंत तक चलता है। इसे जीवन-संघर्ष (Struggle for life) कहते हैं। जीवन-संघर्ष से प्रकृति को किसी जाति के ऐसे सदस्यों के वरण (चुनाव) में मदद मिलती है जो उसी जाति के अन्य सदस्यों से अधिक ताकतवर, योग्य व सहनशील होते हैं। इस प्रकार जातियों का प्राकृतिक वरण होता है। इसे सविस्तार लिख कर डार्विन ने अपने मित्र वनस्पति वैज्ञानिक जोसेफ डाल्टन हुकर को दिखाया था।
आल्फ्रेड रसेल वालेस का प्राकृतिक वैज्ञानिक आलेख डार्विन ने 18.06.1858 को पढ़ा तो आश्चर्य में पड़ गया। परन्तु उससे मिल कर लन्दन की लीनियस सोसाइटी में 01.07.1858 को डार्विन व वालेस का संयुक्त शोधपत्र पढ़ा गया। फिर 24.11.1859 को ‘ऑन दी ओरीजिन अॉफ स्पिसीज बाय मीन्स अॉफ नेचुरल सेलेक्शन’ डार्विन के नाम से प्रकाशित पुस्तक के कारण धर्मावलंबियों ने डार्विन को नास्तिक कहा, फिर भी दूसरी पुस्तक ‘दी वेरिएसन अॉफ एनिमल्स एंड प्लांट्स अंडर डोमेस्टिकेसन’ 1868 में और तीसरी पुस्तक ‘दी डीसेंट अॉफ मैंन एंड सेलेक्सन इन् रिलेशन टू सेक्श’ 1871 में छपी व काफी हद तक इसे शिक्षित वर्ग ने सराहा।
लगभग 6 करोड़ वर्ष पूर्व आधुनिक सीनोजोइक युग का प्रारंभ हुआ था जिसमें प्रकृति ने विशेषत: स्तनधारी प्राणियों पर ध्यान दिया जो सफल रहे। ये प्राइमेट वर्ग के प्राणी थे। मनुष्य भी इसी वर्ग का सुविकसित प्राणी है। प्रकृति ने बुद्धि और कौशल के धनी मानव होमो सेपियेंस को लगभग एक लाख वर्ष पूर्व अर्द्धविकसित रूप में छोड़ दिया जिसने शनै:शनै: यह आधुनिक अवस्था प्राप्त की है।
किसी भी प्राणी का उद्भव हमें सिखाता है कि मनुष्य छोटे व सरल जीव (स्तनधारी जैसे एप, चिम्पांजी, गोरिल्ला, गिब्बन, आदि) से धीरे-धीरे कई लाखों वर्षों में उत्परिवर्तन द्वारा विकसित हुआ है। अत: मनुष्य जीवश्रेष्ठ व सर्वोच्च से अधिक नहीं है। यदि मनुष्य का आधुनिक विकास इन पशुओं से हुआ होता तो आज ये कुछ समानता रखने वाले पशु तब पशु। नहीं रह जाते, सभी मनुष्य हो जाते। इसका तात्पर्य कि मानव के आदिपूर्वज ये प्राणी नहीं हो सकते। जिस प्रकार पृथ्वी सूर्य के एक गर्म पिंड से करोड़ों वर्षों में धीरे-धीरे आज की अवस्था या जैविक सम्पदा के उद्भव की स्थिति में विकास कर पाई है, वह आदि से ऐसी ही नहीं थी। इसे स्पष्टत: जानने के लिए “ओपेरिन थियुरी” को समझना होगा।
ओपेरिन थियुरी (अतिसंक्षिप्त) :
रूसी वैज्ञानिक अलेक्जेण्डर इवानोविच ओपेरिन ने 1924 में “जीव की उत्पत्ति” नाम से निर्जीव पदार्थों से जीवन की उत्पत्ति का सर्वप्रथम सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। ओपेरिन ने लुई पाश्चर के कथन “जीव की उत्पत्ति जीव से ही होती है” को सच बताते हुए कहा कि रसायनिक पदार्थों के जटिल संयोजन से ही जीवन का विकास हुआ है। विभिन्न खगोलीय पिण्डों पर मीथेन की उपस्थिति इस बात का संकेत है कि पृथ्वी का प्रारम्भिक वायुमण्डल मीथेन, अमोनिया, हाइड्रोजन तथा जलवाष्प से बना होने के कारण अत्यन्त अपचायक रहा होगा। इन तत्वों के संयोग से बने यौगिकों ने आगे संयोग कर और जटिल यौगिकों का निर्माण किया होगा। इन जटिल यौगिकों के विभिन्न विन्यासों के फलस्वरूप उत्पन्न नए गुणों ने जीवन की नियमितता की नींव रखी होगी। एक बार प्रारम्भ हुए जैविक लक्षण ने स्पर्धा व संघर्ष के मार्ग पर चल कर वर्तमान सजीव सृष्टि का निर्माण किया होगा।
गर्म पृथ्वी ठंडी होती गई। बर्षाजल के वाष्प से कार्बनिक व अकार्बनिक लवण, खनिज तत्व निचले स्थलों (वर्तमान समुद्र) में एकत्र होते गये। ईथेन, मीथेन, ब्यूटौन, एथिलीन, एसिटिलीन जैसे कार्बनिक यौगिक बने, जिनकी परस्पर प्रतिक्रिया के फलस्वरूप मिथाइल एल्कोहल, इथाइल एल्कोहल, अॉक्सी-हाइड्रो यौगिक, अमोनिया व जल की संयुक्त प्रतिक्रिया से जटिल कार्बनिक यौगिक बने। कालान्तर में पराबैंगनी किरणों (एक्सरे/थण्डरवोल्ट) के होते तमाम शर्करायें बनीं। ग्लिसरीन, वसा, अम्ल, अमीनो एसिड, लेक्टिक एसिड, पाइरिमिडीन, पाइरीन्स बने जो जीवन के मुख्य कारक हैं। अब न्युक्लियोराइड्स-आरएनए व डीएनए (हार्मोन्स की तरह सक्रिय) तरल बने जो स्वऊर्जावान थे। हैल्डेन (1920) ने इसे प्राजैविक तरल (Probiotic soup) कहा। चूंकि इन्हीं से सारे पदार्थों, यौगिकों, तरलों की आपसी तीव्र प्रतिक्रिया के फलस्वरूप प्रोटीन्स और न्यूक्लीइक अम्ल बने, जिनसे न्यूक्लियोप्रोटीन्स बन कर द्विगुणित होने लगीं। जीवों के लिए सर्वप्रथम कोशिकाभित्ति (Cell wall) का निर्माण हुआ जिसके बावत न्यूक्लियस का विभाजन संभव हुआ।
अब एक समान कार्य के लिए समान यौगिकों द्वारा ऊतकों का निर्माण होने लगा। कोशिकाद्रव को छानने वाली कोशिकाभित्ति का निर्माण हुआ। कालान्तर में स्वपोषी जीव बने जो अपना भोजन खुद ही बनाने-पचाने लगे। कुछ कोशिकाएं सूर्यप्रकाश की उपस्थिति में भोजननिर्माण एवं हरित पदार्थ (क्लोरोफिल) का निर्माण करने लगीं और वनस्पति (पेड़-पौधे) के विकास का शुभारम्भ हुआ। इसी अवस्था से प्राणियों का उद्भव व विकास प्रारम्भ हुआ। अब कोशिकाओं ने स्वपोषी न्यूक्लियस, माइटोकांड्रिया, क्लोरोप्लास्ट, गॉलगी कॉम्प्लेक्स, लीमोजोम्स आदि स्वतंत्ररूप से निर्माण कर लिए और इस प्रकार वनस्पति के समानांतर एककोशीय प्राणी (जन्तु) का विकास संभव हो सका जैसे पैरामिशियम व अमीबा। कालान्तर में बहुकोशीय प्राणियों का उद्भव होता गया, साथ में धरती के वातावरण और आपस की विसम परिस्थितियों में जीने के लिए प्राणियों ने जीवन-संघर्ष प्रारंभ किया।
पहले एक-कोशिकीय (अमीबा, पैरामीशियम) जीव बने, जिनसे लाखों वर्ष में मछली आदि में उद्भव हुआ। बिना रीढ़ के जन्तुओं से रीढ़ वाले जन्तुओं का विकास हुआ जिन्हें समूहों में बांटा गया जैसे मत्स्य, पक्षी, सरीसृप, स्तनधारी, कृन्तक, उभयचर आदि। स्तनधारी प्राणियों में जंगली पशु आते हैं जैसे शेर, चीता, तेंदू, भेड़िया, बिल्ली, कुत्ता, ऊंट, हाथी, गाय, भैंस, मनुष्य आदि। यह निश्चित है कि ये सभी प्रारंभ में किसी एक पूर्वज से लाखों वर्ष में विकसित हुए हैं। सभी पक्षियों के भी एक पूर्वज रहे होंगे। इसी प्रकार स्तनधारी जीवों का दूसरा समूह गाय, भैंस, घोड़ा, गधा, बकरी, बन्दर, भालू, चिम्पांजी, गोरिल्ला, वनमानुष आदि के भी पूर्वज एक ही रहे होंगे जिनसे लाखों वर्ष में रूपांतरण होने से नये व आधुनिक प्राणी विकसित हुए होंगे जिनमें एक मनुष्य है। आधुनिक मनुष्य आदि से ऐसा ही नहीं था क्योंकि फॉसिल के अध्ययन से वह भिन्न था। समय के साथ उसने अपना शरीर, आवश्यकताएं, आवास, भोजन, यात्रा के साधन तथा सुरक्षा में विकास किया और आधुनिक मनुष्य बन गया। अर्वाचीन मानव पशु से पाषाण, ताम्र, रजत-स्वर्ण, मशीन, अस्त्र-शस्त्र युग पार करता हुआ अत्याधुनिक सभ्य, सुंदर, शिक्षित, वैज्ञानिक व ज्ञानी-ध्यानी बन गया।
नोट – प्रत्येक फोटो प्रतीकात्मक है (फोटो स्रोत: गूगल)
[ डिसक्लेमर: यहां दी गई जानकारियां धार्मिक आस्था और लोक मान्यताओं पर आधारित हैं, इसका कोई भी वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है. इसे सामान्य जनरुचि को ध्यान में रखकर यहां प्रस्तुत किया गया है. The Hindu Media वेबसाइट या पेज अपनी तरफ से इसकी पुष्टि नहीं करता है. ]