प्रेम और कामुकता में क्या अंतर है?

प्रेम और कामुकता, या कामवासना, इन दोनों का अलग अस्तित्व है ही क्यों? इन दोनों में अंतर क्यों किया जाता है अगर हम इन शब्दों का मूल देखें तो प्रेम और वासना दोनों ही संस्कृत के मूल “लुभ्य” से आ रहे हैं, जिसका मूलभूत अर्थ इच्छा है। तो मेरा पहला प्रश्न ये है कि दोनों, प्रेम और कामवासना, में भेद क्यों किया जाता रहा है?
और जो अभिव्यक्ति है दोनों की, वो शारीरिक धरातल पर, और मन के धरातल पर, एक जैसी ही दिखाई देती है। आप जैसे कहते भी हैं अपने सत्रों में, कि प्रेम एक मन की स्थिति है। तो वासना भी वही होती है। तो जब अभिव्यक्तियाँ दोनों की एक सी हैं, तो शब्द अलग क्यों हैं, और एक को ऊँचा दर्जा क्यों?और दूसरी चीज़, जब हम प्रेम की बात करते हैं, तब हम ये कहते हैं, कि ये मेरा ईश्वरीय प्रेम है, ये मेरा ब्रह्म से प्रेम है। तो शरीर और शरीर के तल पर जो घटित होता है, हम उसे प्रेम क्यों नहीं कहते?
आचार्य प्रशांत: दो अलग-अलग धरातल हैं। वासना है, मन की, शरीर की एक क्रिया। और प्रेम है, मन की दिशा। मन किधर को जा रहा है।
तुमने “लव” शब्द की वितोत्पत्ति में जा के कहा कि “लोभ” से जुड़ा हुआ है। “इच्छा” से, “कामना” से जुड़ा हुआ है। ‘किसकी’ इच्छा? क्या चाह रहे हो? दो लोग हैं, दो सड़कों पर जा रहे हैं। एक जा रहा है, क्योंकि उसकी मंज़िल पर जो है उसे उसका क़त्ल करना है, हिंसा से भरा वो जा रहा है। इसके पास भी लोभ है ना, कामना है ना? क्या लोभ है? कि मंज़िल मिलेगी तो मारूंगा।
दूसरा है, वो भी कामना से ही भरा हुआ है, उसकी मंज़िल पर जो बैठा है, उसे उस पर सब कुछ न्योछावर कर देना है, उसके साथ एक हो जाना है। उम्मीद करता हूँ, ये मात्र शब्द नहीं हैं, आपके लिए। आप अर्थ जानते हो इसका। इसका तो अर्थ जानते ही हो — किसी को मारना? उम्मीद करता हूँ, इसका भी अर्थ जानते हो, किसी पर अपने आप को न्योछावर कर देना क्या होता है?
प्र: इसको ज़रा विस्तार से समझाएँगे।
वो जो है, वो इतना ऊँचा और इतना सुन्दर है, कि उसके सामने मेरा होना गौण है। वो जो है, उसके साथ जब होता हूँ, तो कुछ और हो जाता हूँ। अपने जैसा हो जाता हूँ। फिर बंधन, और विचार, और अपना सारा छुटपन, तुच्छतायें, ये सब पीछे छूट जाती हैं, खो जाती हैं। कोई है जो ऐसा है, कि कुछ मांगे तो दे देंगे। कोई है जो ऐसा है, कि कुछ भी करे, तो उसकी माफ़ी है। ये होता है अपने आप को न्योछावर कर देना।
तो दो लोग हैं, और दो अलग-अलग राहों पर जा रहे हैं। एक भरा हुआ है हिंसा से, उसके पास भी एक लक्ष्य तो है? एक भरा हुआ है प्रेम से, उसके पास भी एक लक्ष्य तो है? कह सकते हो, दोनों लोभी हैं। पर लोभ-लोभ में अंतर है।
अंतर अब दिखाई देगा, समझना, कैसे।
राह दोनों की लम्बी है, इसका बदला कभी पूरा नहीं होता, उसका प्यार कभी पूरा नहीं होता। जिन्हें बदला उतारने की धुन होती है, वो अच्छे से जानते हैं कि कुछ भी कर लें, जो आग लगी होती है वो ठंडी होती नहीं। जो चोट लगी होती है, उस पर महलम कितने भी लगा लो, उसके दाग साफ़ होते नहीं। राह दोनों की लम्बी है, जितना चलते जाते हैं, मंज़िल उतनी ही दूर दिखाई देती है।
तो दोनों को बड़ा लंबा रास्ता तय करना है, और आम तौर पर लम्बे रास्तों पर मुलाक़ातें हो जाती हैं। राहगुज़र, मुसाफिर, हमसफ़र, जाने पहचाने लोग मिलते हैं। इसको भी कोई मिलता है, उसको भी कोई मिलता है; ये भागा जा रहा है हिंसा में, वो भागा जा रहा है प्रेम में। ये, ज्वर में है, आँखें लाल हैं, तड़प रहा है, जल रहा है। दूसरे वाले को देखोगे तो उन्माद की सी स्थिति उसकी भी लगेगी, एक उन्मत्तता उस पर भी छायी हुई है। आँखें उसकी भी लाल हो सकती हैं, ज्वर में वो भी लग सकता है। और दोनों को, रास्तों में लोग मिलते हैं। अब बताओ मुझे, इसका सम्बन्ध कैसा होगा राह में मिलने वाले लोगों से? और उसका सम्बन्ध कैसा होगा, राह में मिलने वाले लोगों से?
इन दोनों राहों पर आप ही हैं, आप इन दोनों को जानते हैं। इन दोनों राहों पर आप चले हुए हैं। तो आप ही मुझे बताएं कि जब इस राह पर चल रहे होते हैं, और मिल जाता है कोई रास्ते में, तो उससे आपका सम्बन्ध कैसा बनता है, मन कैसा बनता है, व्यवहार कैसा बैठता है? और इस राह पर जब कोई मिल जाता है, तो मन कैसा बैठता है, व्यवहार कैसा बैठता है? मान लो और सुलभ करने के लिए, कि एक ही व्यक्ति, कभी इस पर मिला, कभी उस पर मिला। इस रास्ते पर जब वो मिलता है, तब उससे कैसा व्यवहार होगा, और उस रास्ते पर जब वो मिलता है तब उससे कैसा व्यवहार होगा? कहो? जवाब दो।
प्र: प्रेम से भरे होंगे तो प्रेमपूर्ण व्यवहार रहेगा, घृणा से भरे होंगे तो घृणा से भरा व्यवहार होगा।
आचार्य: हाँ, ठीक है ना? अब मान लो, दोनों ही रास्तों पर तुम्हें जो व्यक्ति मिलता है, उससे तुम शरीर का सम्बन्ध बनाते हो। शरीर का सम्बन्ध दोनों से ही बना। इस रास्ते पर जो सम्बन्ध बनेगा, वो कैसा होगा, और उस रास्ते पर जो बनेगा वो कैसा होगा? दिखने में दोनों ही स्थितियों में ऐसा लगेगा कि शरीर से शरीर मिला। इस रास्ते पर भी शरीर से शरीर मिल रहा है, बाहर बाहर से देखोगे तो कहोगे, “वासना।” उस रास्ते पर भी शरीर से शरीर मिल रहा है, बाहर बाहर से देखोगे तो कहोगे, “वासना।” पर यहाँ जो मिलन की गुणवत्ता होगी, और वहाँ जो गुणवत्ता होगी, दोनों क्या एक होंगे?
आचार्य: मन की दशा निर्धारित करती है कि शरीर से शरीर कैसे मिलेगा। मन की दशा निर्धारित करती है कि तुम्हारे काम की, तुम्हारी वासना की, तुम्हारे सम्भोग की गुणवत्ता क्या होगी। तुम प्रेम से भरे हुए हो तो तुम्हारे शारीरिक मिलन में भी एक सूक्ष्म तत्व आ जायेगा, जो इतनी आसानी से पकड़ा नहीं जा सकता, पर होगा। वो इसलिए नहीं है कि तुम्हें जो मिला है वो तुम्हें आज कुछ ख़ास प्यारा हो गया है। तुम्हें आज जो इस राह पर मिला है, मैंने कहा है कि वो कभी-कभी उस राह पर भी मिलता है। तो व्यक्ति वही है, पर जब प्रेम की राह पर तुमसे मिलता है, तब उससे अलग सम्बन्ध बनाते हो, और हिंसा की राह पर जब मिलता है तो उससे अलग संबंध बनाते हो। बात समझ में आ रही है?
मन की दिशा है, प्रेम। शरीर से शरीर का मिलन, तो हो ही जाता है। एक हिंसक व्यक्ति भी शारीरिक संसर्ग कर सकता है, और एक संत भी कर सकता है, दोनों कर सकते हैं । लेकिन दोनों के संसर्ग में, ज़रा बात अलग होती है। और वो जो बात है, वो बड़ी महीन है। उसको आँखें नहीं देख सकती, लव्ज़ बयान नहीं कर सकते। ऊपर-ऊपर से देखोगे तो यही कहोगे कि वासना ही तो है। भाई, जब तक शरीर हो, और शरीर से मिल रहे हो, तो है तो वो वासना ही। इसमें कोई शक़ नहीं है, बिलकुल वासना है। पर उस वासना के केंद्र पर कौन बैठा हुआ है?
उस वासना के केंद्र में प्रेम भी हो सकता है, और उस वासना के केंद्र में भूख भी हो सकती है, हिंसा भी हो सकती है। भोगेगा तो दूसरे के शरीर को, तुम्हारा शरीर ही। लेकिन भोगने के पीछे जो बैठा होगा, उसकी हालत में, ज़मीन आसमान का अंतर हो सकता है। अगर तुम्हें सिर्फ शरीर का भोगना नज़र आएगा, तो तुम कहोगे, हो क्या रहा है? यही तो हो रहा है, शरीर से शरीर का मिलन, और क्या हो रहा है। एक शरीर दूसरे शरीर से तृप्ति ले रहा है। यही तो हो रहा है। ऊपर ऊपर यही लगेगा। प्रेम में एक हो जाना, और व्यभिचार — शारीरिक तल पर तो एक लग ही सकते हैं। लेकिन उनके पीछे, मन की दिशा का अंतर होता है ।
मैं जा रहा था सत्य की ओर, उस रास्ते मुझे कोई मिला। अब इससे जो मेरा नाता बनेगा, वो सत्य का नाता होगा। और मैं जा रहा था विक्षिप्तता की ओर, मैं जा रहा था तमाम मूर्खताओं की ओर, और उस रास्ते मुझे कोई मिला, उस रास्ते मुझे कोई मिला है, तो उससे मेरा नाता भी विक्षिप्तता का ही होना है। कोई तीसरा होगा, वो ऊपर से देख रहा होगा, वो देखेगा, देखो इस राह पर भी कोई सम्भोग कर रहा है जोड़ा, और उस राह पर भी। वो कहेगा, दोनों ही राहों पर एक ही बात तो हो रही है; लेकिन एक बात नहीं हो रही है। मिलन मिलन में फर्क है। इनके मिलने, और उसके मिलने में फ़र्क है। ये पुरुष-प्रकृति का नाच है, और वहाँ पर मात्र प्रकृति का आर्तनाद है ।
नोट – प्रत्येक फोटो प्रतीकात्मक है (फोटो स्रोत: गूगल)
[ डिसक्लेमर: यहां दी गई जानकारियां धार्मिक आस्था और लोक मान्यताओं पर आधारित हैं, इसका कोई भी वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है. इसे सामान्य जनरुचि को ध्यान में रखकर यहां प्रस्तुत किया गया है. The Hindu Media वेबसाइट या पेज अपनी तरफ से इसकी पुष्टि नहीं करता है. ]