सहवास के 8 प्राचीन नियम, पालन करने से मिलते हैं कई फायदे

काम-वासना नहीं। हालांकि वर्तमान में ऐसा नहीं होता। इसका कारण है सहवास के प्राचीन नियमों की समझ का नहीं होना। आधुनिक युग में संस्कार तो समाप्त हो ही गए हैं, साथ ही व्यक्ति स्वार्थी अधिक हो चला है। आओ जानते हैं कि सहवास के वे कौन से नियम हैं जिन्हें जानकर लाभ उठाया जा सकता है और सुख को अधिक बढ़ाया जा सकता है।
1. पहला नियम : हमारे शरीर में 5 प्रकार की वायु रहती है। इनका नाम है- 1. व्यान, 2. समान, 3. अपान, 4. उदान और 5. प्राण। उक्त 5 में से एक अपान वायु का कार्य मल, मूत्र, शुक्र, गर्भ और आर्तव को बाहर निकालना है। इसमें जो शुक्र है वही वीर्य है अर्थात यह वायु संभोग से संबंध रखती है। जब इस वायु की गति में फर्क आता है या यह किसी भी प्रकार से दूषित हो जाती है तो मूत्राशय और गुदा संबंधी रोग उत्पन्न होते हैं। इससे संभोग की शक्ति पर भी असर पड़ता है। अपान वायु माहवारी, प्रजनन और यहां तक कि संभोग को भी नियंत्रित करने का कारक है। अत: इस वायु को शुद्ध और गतिशील बनाए रखने के लिए आपको अपने उदर को सही रखना होगा और सही समय पर शौचादि से निवृत्त होना होगा।
2. दूसरा नियम : कामसूत्र के रचयिता आचार्य वात्स्यायन के अनुसार स्त्रियों को कामशास्त्र का ज्ञान होना बेहद जरूरी है, क्योंकि इस ज्ञान का प्रयोग पुरुषों से अधिक स्त्रियों के लिए जरूरी है। हालांकि दोनों को ही इसका भरपूर ज्ञान हो, तभी अच्छे सुख की प्राप्ति होती है। वात्स्यायन के अनुसार स्त्री को विवाह से पहले पिता के घर में और विवाह के पश्चात पति की अनुमति से काम की शिक्षा लेनी चाहिए। वात्स्यायन का मत है कि स्त्रियों को बिस्तर पर गणिका की तरह व्यवहार करना चाहिए। इससे दांपत्य जीवन में स्थिरता बनी रहती है और पति अन्य स्त्रियों की ओर आकर्षित नहीं हो पाता तथा पत्नी के साथ उसके मधुर संबंध बने रहते हैं। इसलिए स्त्रियों को यौनक्रिया का ज्ञान होना आवश्यक है ताकि वह काम कला में निपुण हो सके और पति को अपने प्रेमपाश में बांधकर रख सके।
आचार्य वात्स्यायन के अनुसार एक कन्या के लिए सहवास की शिक्षा देने वाले विश्वसनीय व्यक्ति हो सकते हैं- दाई, विश्वासपात्र सेविका की ऐसी कन्या, जो साथ में खेली हो और विवाहित होने के पश्चात पुरुष समागम से परिचित हो। विवाहिता सखी, हमउम्र मौसी या बड़ी बहन, अधेड़ या बुढ़िया दासी, बड़ी बहन, ननद या भाभी जिसे संभोग का आनंद प्राप्त हो चुका हो। उसका स्पष्ट बोलने और मधुर बोलने वाली होना जरूरी हो ताकि वह काम का सही-सही ज्ञान दे सके।
3. तीसरा नियम : शास्त्रों के अनुसार कुछ ऐसे दिन भी हैं जिस दिन पति-पत्नी को किसी भी रूप में शारीरिक संबंध स्थापित नहीं करने चाहिए, जैसे अमावस्या, पूर्णिमा, चतुर्थी, अष्टमी, रविवार, संक्रांति, संधिकाल, श्राद्ध पक्ष, नवरात्रि, श्रावण मास और ऋतुकाल आदि में स्त्री और पुरुष को एक-दूसरे से दूर ही रहना चाहिए। इस नियम का पालन करने से घर में सुख, शांति, समृद्धि और आपसी प्रेम-सहयोग बना रहना है अन्यथा गृहकलह और धन की हानि के साथ ही व्यक्ति आकस्मिक घटनाओं को आमंत्रित कर लेता है।
4. चौथा नियम : रात्रि का पहला प्रहर रतिक्रिया के लिए उचित समय है। इस प्रहर में की गई रतिक्रिया के फलस्वरूप ऐसी संतान प्राप्त होती है, जो अपनी प्रवृत्ति एवं संभावनाओं में धार्मिक, सात्विक, अनुशासित, संस्कारवान, माता-पिता से प्रेम रखने वाली, धर्म का कार्य करने वाली, यशस्वी एवं आज्ञाकारी होती है। शिव का आशीर्वाद प्राप्त ऐसी संतान की लंबी आयु एवं भाग्य प्रबल होता है।
प्रथम प्रहर के बाद राक्षसगण पृथ्वीलोक के भ्रमण पर निकलते हैं। उसी दौरान जो रतिक्रिया की गई हो, उससे उत्पन्न होने वाली संतान में राक्षसों के ही समान गुण आने की प्रबल आशंका होती है। पहले प्रहर के बाद रतिक्रिया इसलिए भी अशुभकारी है, क्योंकि ऐसा करने से शरीर को कई रोग घेर लेते हैं। व्यक्ति अनिद्रा, मानसिक क्लेश, थकान का शिकार हो सकता है एवं माना जाता है कि भाग्य भी उससे रूठ जाता है।
5. पांचवां नियम : यदि कोई संतान के रूप में पुत्रियों के बाद पुत्र चाहता है तो उसे महर्षि वात्स्यायन द्वारा प्रकट किए गए प्राचीन नियमों को समझना चाहिए। इस नियम के अनुसार स्त्री को हमेशा अपने पति के बाईं ओर सोना चाहिए। कुछ देर बाईं करवट लेटने से दायां स्वर और दाहिनी करवट लेटने से बायां स्वर चालू हो जाता है। ऐसे में दाईं ओर लेटने से पुरुष का दायां स्वर चलने लगेगा और बाईं ओर लेटी हुई स्त्री का बायां स्वर चलने लगता है। जब ऐसा होने लगे तब संभोग करना चाहिए। इस स्थिति में गर्भाधान हो जाता है।
6. छठा नियम : आयुर्वेद के अनुसार स्त्री के मासिक धर्म के दौरान अथवा किसी रोग, संक्रमण होने पर सेक्स नहीं करना चाहिए। यदि आप खुद को संक्रमण या जीवाणुओं से बचाना चाहते हैं, तो सहवास के पहले और बाद में कुछ स्वच्छता नियमों का पालन करना चाहिए। जननांगों पर किसी भी तरह का घाव या दाने हो तो सहवास न करें। सहवास से पहले शौचादि से निवृत्त हो लें। सहवास के बाद जननांगों को अच्छे से साफ करें या स्नान करें। प्राचीनकाल में सहवास से पहले और बाद में स्नान किए जाने का नियम था।
7. सातवां नियम : मित्रवत व्यवहार न होने पर, काम की इच्छा न होने पर, रोग या शोक होने पर भी संभोग नहीं करना चाहिए। इसका मतलब यह कि यदि आपकी पत्नी या पति की इच्छा नहीं है, किसी दिन व्यवहार मित्रवत नहीं है, मन उदास या खिन्न है तो ऐसी स्थिति में यह कार्य नहीं करना चाहिए। यदि मन में या घर में किसी भी प्रकार का शोक हो तब भी संभोग नहीं करना चाहिए। मन:स्थिति अच्छी हो तभी करना चाहिए।
8. आठवां नियम : पवित्र माने जाने वाले वृक्षों के नीचे, सार्वजनिक स्थानों, चौराहों, उद्यान, श्मशान घाट, वध स्थल, चिकित्सालय, औषधालय, मंदिर, ब्राह्मण, गुरु और अध्यापक के निवास स्थान में सेक्स करने की मनाही है। यदि कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो उसको इसका परिणाम भी भुगतना ही होता है।
नोट – प्रत्येक फोटो प्रतीकात्मक है (फोटो स्रोत: गूगल)
[ डिसक्लेमर: यहां दी गई जानकारियां धार्मिक आस्था और लोक मान्यताओं पर आधारित हैं, इसका कोई भी वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है. इसे सामान्य जनरुचि को ध्यान में रखकर यहां प्रस्तुत किया गया है. The Hindu Media वेबसाइट या पेज अपनी तरफ से इसकी पुष्टि नहीं करता है. ]